आत्मचिंतन के क्षण

विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने आती है। इससे हृदय में जो पीड़ा, आकुलता और छटपटाहट होती है उससे चाहें तो अपना सद्ज्ञान जाग्रत् कर सकते हैं। भगवान् को प्राप्त करने के लिए जिस साहस और सहनशीलता की आवश्यकता होती है, दुःख उसकी कसौटी मात्र है। विपत्तियों की तुला पर जो अपनी सहनशक्तियों को तोलते रहते हैं, वही अंत में विजयी होते हैं, उन्हीं को इस संसार में कोई सफलता प्राप्त होती है।

अपने सुख-दुःख, उन्नति-अवनति, कल्याण-अकल्याण, स्वर्ग और नरक का कारण मनुष्य स्वयं है। फिर दुःख या आपत्ति के समय भाग्य के नाम पर संतोष कर लेना और भावी सुधार के प्रति अकर्मण्य बन जाना ठीक नहीं है। ऐसी स्थिति आने पर तो हमें यह अनुभव करना चाहिए कि हमसे जरूर कोई भूल हुई है और उस पर पश्चाताप करना चाहिए।

महानता मनुष्य के अंदर छिपी हुई है और व्यक्त होने का रास्ता ढूँढ़ती है, पर सांसारिक कामनाओं में ग्रस्त मनुष्य उस आत्म प्रेरणा को भुला देना चाहता है, ठुकराये रखना चाहता है। अपमानित आत्मा चुपचाप शरीर के भीतर सुप्त पड़ी रहती है और मनुष्य केवल विडम्बनाओं के प्रपंच में ही पड़ा रह जाता है।

मनुष्य सुखों की, पुण्य फल की इच्छा तो करता है, किन्तु पुण्य अर्जित नहीं करता है। पाप के दुष्परिणामों से डरता है, किन्तु यत्नपूर्वक करता दुष्कर्म ही है-ऐसी स्थिति रहते हुए भला किसी को सुख मिल सकता है? आम का फल आम होता है, बबूल नहीं। इसलिए सुख वही प्राप्त कर सकते हैं, जिनकी प्रवृत्तियाँ भी सन्मार्गगामी होती हैं।

✍? पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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