सामाजिक मुद्दों पर फिल्म बना बिमल रॉय ने दी भारतीय सिनेमा को नई पहचान

जाने-माने निर्देशक बिमल रॉय का भारतीय सिनेमा में बड़ा योगदान रहा है. उन्होंने हिंदी सिनेमा को कुछ ऐसी फिल्‍में दी जिसे हिंदी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर माना जाता है. उनकी फिल्‍मों ने हिंदी सिनेमा का एक नयी दिशा प्रदान की. जब भारतीय सिनेमा की बेहतरीन फिल्‍मों की बात की जाती हैं तो फिल्‍म ‘दो बीघा जमीन’, ‘सुजाता’, ‘बंदिनी’ और ‘परिणीता’ का जिक्र मजबूती से होता है. इन फिल्‍मों के निर्देशक बिमल रॉय हैं. हालांकि भारतीय सिनेमा को इस निर्देशक का साथ ज्‍यादा नहीं मिल पाया.
बिमल रॉय का जन्म 12 जुलाई 1909 को ढाका के सुआपुर में हुआ था जो अब बांग्लादेश का हिस्सा है. कैंसर की वजह से 8 जनवरी 1966 में 56 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई. वे भले ही जमींदार परिवार से ताल्‍लुक रखते थे लेकिन उन्‍होंने फिल्‍मों में हाशिए पर मौजूद लोगों के दुख-दर्द को बखूबी बयां किया.

बिमल रॉय ने अपने डायरेक्‍शन करियर कर शुरुआत 1953 में ‘दो बीघा जमीन’ से की थी. वे जिन फिल्‍मों को निर्देशन करते थे वो सामाजिक मुद्दों पर बनी होती थी और उनमें कोई चकाचौंध भरा नहीं होता था. उस समय का सिनेमा कमर्शियल नहीं था जैसा आज है. बिमल राय की फिल्‍म कुछ सीख दे जाती थीं और कई सवाल खड़े करती थी. उनके पास कुछ पैसे आते थे जिससे वे दूसरे फिल्‍म बनाते और लोगों के सामने पेश करते.

पूंजीवादी समाज पर चोट करती ‘दो बीघा जमीन’
शम्भू (बलराज साहनी) एक ग़रीब किसान है जिसके पास पूरे परिवार का पेट पालने के लिए सिर्फ़ दो बीघा जमीन ही है. उसके परिवार में उसकी पत्नी पारो (निरूपा रॉय), लड़का कन्हैया, बाप गंगू और एक आने वाली सन्तान हैं. कई सालों से गाँव में लगातार सूखा पड़ रहा है. उसके गाँव का ज़मींदार ठाकुर हरनाम सिंह (मुराद) शहर के व्यवसायियों के साथ मिलकर अपनी विशाल ज़मीन पर एक मिल खोलने की योजना बनाता है. लेकिन इसमें एक अड़चन है उसकी ज़मीन के बीचों बीच शम्भू की ज़मीन. हरनाम सिंह आश्वस्त होता है कि शम्भू अपनी ज़मीन उसे बेच ही देगा. लेकिन शम्भू जमीन बेचने को कतई राजी नहीं होता. हरनाम नाराज होकर एक दिन में सारा कर्ज चुकाने को कहता है. शंम्‍भू घर आकर बेटे के साथ हिसाब लगाता है कि 65 रुपये देने हैं लेकिन ये कर्ज 235 रुपये का बना दिया जाता है. एक अनपढ़ किसान कैसे इस चंगुल से खुद को निकालने की कोशिश करता है लेकिन उसकी दो बीघा जमीन उसके हाथ से धूल की तरह फिसल जाती है.
जाति प्रथा को आईना दिखाती ‘सुजाता’
साल 1959 में प्रदर्शित हुई इस फिल्‍म की कहानी हरिजन बस्‍ती से शुरू होती है जहां हैजे की बीमारी से लोग मर रहे हैं. ब्राह्मण उपेंद्रनाथ चौधरी और उनकी पत्नी चारू के यहां काम करनेवाले की पत्‍नी समेत मौत हो जाती है. वे एक नवजात बच्‍ची को अपने पीछे छोड़ जाते हैं. उपेंद्रनाथ चौधरी और उनकी पत्‍नी उसे पालते हैं और नाम रखते हैं सुजाता. उनकी एक बेटी है रमा. दोनों बच्चियां खेलते-कूदते बड़ी होती हैं. बाद में सुजाता (नूतन) को उंची जाति के अधीर (सुनील दत्‍त) से प्रेम हो जाता है जिसे रमा के वर के तौर पर देखा जा रहा है. इससे चारू नाराज हो जाती हैं और वो खुलासा करती है कि सुजाता नीची जाति में पैदा हुई है. सुजाता घर छोड़ने का फैसला करती है. लेकिन अंत में सब ठीक हो जाता है.
फिल्‍म में जाति प्रथा पर गंभीर चोट करने के अलावा सुजाता और अधीर के प्रेम का चित्रण इतनी मासूमियत और आत्‍मीता से किया गया है जिसे आज भी देखने पर यकीं नहीं होगा कि प्रेम यूं भी होता है. प्रेम की इक नयी भाषा को इस फिल्‍म ने जन्‍म दिया.
नारी प्रधान फिल्‍म ‘बंदिनी’
साल 1963 में आई ‘बंदिनी’ की कहानी कल्यानी (नूतन) के इर्द-गिर्द घूमती है. कल्यानी जेल में एक क़ैदी है जिसपर खून का इल्ज़ाम है. जेल में एक बुढ़िया कैदी बीमार हो जाती हैं और कल्यानी स्वेच्छा से उसकी देखभाल करने को राज़ी हो जाती है. बुढ़िया का इलाज करते करते जेल के डॉक्टर देवेन्द्र (धर्मेन्द्र) को कल्यानी से प्यार हो जाता है लेकिन कल्यानी अपने अतीत के कारण उसके प्यार को ठुकरा देती हैं. फिल्‍म में कल्‍याणी का किरदार चुप और संकोची जरूर है लेकिन वो पुरुष के पीछे आंख बंद कर चलनेवाली महिला नहीं है. वो कठिन से कठिन फैसला भी मजबूती से लेती हैं.
बिमल रॉय की फिल्‍म कुछ सीख दे जाती थीं और कई सवाल खड़े करती थी. उनके पास कुछ पैसे आते थे जिससे वे दूसरे फिल्‍म बनाते और लोगों के सामने पेश करते. उस दौर में समाज में जमींदारी, गरीबी, निम्‍न वर्गों को लेकर छुआछूत, औरतों को घर से न निकलने देने जैसे कई बड़े सामाजिक मुद्दे पर फिल्‍में बनाते थे जो समाज को एकजुट होने का संदेश देती थी. उन्‍होंने अपनी फिल्‍मों के माध्‍यम से फिल्‍म जगत की नींव को तो मजबूत किया ही, समाज को भी जागरुक करने का काम किया.
बिमल राय ने अपने करियर के दौरान कई पुरस्‍कार जीते. जिनमें 11 फिल्‍मफेयर अवार्ड, 2 राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार, कान्‍स फिल्‍म फेस्टिवल में अंतर्राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार. साल 1958 में उनकी फिल्‍म ‘मधुमति’ ने 9 फिल्‍मफेयर अवार्ड जीते थे.

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