वैश्विक परिदृश्य में लोकतंत्र की चुनौतियां

चार जुलाई, 1776 के दिन अमेरिका में आयोजित सम्मेलन में सर्वसम्मति से 13 राज्यों को मिलाकर संयुक्त राज्य अमेरिका बनाते वक्त घोषणा की गई : ‘हम इस स्वयंसिद्ध तथ्य पर यकीन करते हैं कि सभी इनसानों की रचना समान रूप से हुई है, रचयिता ने उन्हें कुछ न छीने जाने वाले हकों से संपन्न किया है, इनमें कुछेक हैं—जीवन, आजादी, खुशी की तलाश अपने इन अधिकारों को सुरक्षित बनाए रखने के लिए नागरिक खुद के लिए एक संस्थागत प्रशासनिक व्यवस्था बनाते हैं और इस तरह बनी सरकार को प्राप्त न्यायपूर्णीय शक्ति शासित जनता की सहमति से प्राप्त होती है।Ó
तो यह नज़रिया संयुक्त राष्ट्र अमेरिका बनाते वक्त संस्थापकों का था। हालांकि जब यह कहा गया था कि सब इनसानों की रचना समान रूप से हुई है, तथापि उस वक्त अमेरिका में अफ्रीकी मूल के लाखों-लाख अश्वेतों को दास बनाया हुआ था और दक्षिणी अंचल के खेतों में बतौर बंधुआ मजदूर झोंक रखा था। उनके साथ इनसानों जैसा व्यवहार नहीं किया जाता था और हर वह काम करवाया जाता था, जिसे श्वेत अमेरिकी अपने खेतों या घऱों में करना पसंद न करें। उन्हें मनमाफिक घूमने-फिरने और सरकारी परिवहन का प्रयोग करने की मनाही थी। सार्वजनिक परिवहन में सफर और अपनी मनपसंद सीटों पर बैठ सकें, इसके लिए अनुमति बनने में एक सदी से ज्यादा वक्त लग गया। कहने को कह दिया कि ‘सरकार को मिली न्यायपूर्णीय शक्ति शासित जनता की सहमति से प्राप्त होती हैÓ, लेकिन अश्वेतों को मतदान का अधिकार नहीं था। यहां तक कि श्वेत महिलाओं तक को भी वोट देने का हक नहीं था। बहुत संघर्ष के बाद महिलाओं को वर्ष 1918 में तो अश्वेतों को सन् 1870 में मतदान का अधिकार मिल पाया था। गोरों और कालों के बीच व्याप्त चौड़े पाट के कारण आज भी समानता पूरी तरह कायम नहीं हो पाई है। डोनाल्ड ट्रंप ने इसी फूट का दोहन कर सत्ता पाई थी और कुर्सी पर रहते हुए इस आग को और हवा दी और आज भी दे रहे हैं। वे अपने समर्थकों के भेजे में यह बात डालने सफल रहे हैं कि चुनाव के नतीजे उनसे ‘छीने’ गए हैं और उनके मुरीदों का बड़ा तबका इस पर यकीन भी करता है। 6 जनवरी, 2021 के दिन ट्रंप ने अपने समर्थकों द्वारा व्हाइट हाउस पर कब्जा करवाकर लगभग तख्ता पलट कर डाला था।
इसी बीच अश्वेतों पर हमलों का सिलसिला बढ़ गया है, स्कूलों, मॉल्स इत्यादि में जब-तब उन पर घातक वारदातें हो रही हैं, घबराए लोगों द्वारा विभिन्न किस्म के हथियारों की खरीद में कई गुणा इजाफा हुआ है। कुल मिलाकर तमाम परिदृश्य अनिश्चितता भरा है और लगता है अमेरिकी गणराज्य ऐसे ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा है जो कभी भी फट सकता है।
ठीक इसी दौरान और भी ज्यादा खतरनाक घटनाक्रम चल रहा है। यानी रिपब्लिकन पार्टी शासित राज्यों में ऐसे कानून लाने की कोशिश हो रही है, जिससे अल्पसंख्यक मतदान से वंचित हो जाएंगे। इसके पीछे मंतव्य है डेमोक्रेटिक पार्टी के वोटर आधार को कम करना। इस किस्म के कानून बनाने के प्रयास भी चल रहे हैं, जिससे राज्य विधायिका को आधिकारिक चुनावी नतीजे उलटने का हक मिल जाएगा।
राष्ट्रपति जो बाइडेन को लोकतंत्र को दरपेश इस अति गंभीर चुनौती का अहसास हो गया है, इसलिए उन्होंने खासतौर पर उपराष्ट्रपति को नियुक्त किया है कि वह अपना तमाम ध्यान और समय लोकतंत्र-विरोधी ताकतों से लड़ाई का नेतृत्व करने में लगाएं। बाइडेन यूरोपियन देशों के दौरे पर हैं, जहां उनका प्रयास है कि जनतांत्रिक राष्ट्रों को संगठित कर लोकतंत्र-विरोधी ताकतों से मिलकर लडऩे की रणनीति बनाई जाए।
इस लेख में मैंने अमेरिकी परिदृश्य का वर्णन करने को इसलिए इतनी जगह दी है, क्योंकि हम लोग उस मुल्क को नागरिक स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों का प्रकाश स्तंभ एव शेष दुनिया के लिए जनतांत्रिक व्यवस्था का प्रणेता मानते हैं। विश्वभर के देशों में लोकतंत्र कायम करवाने को हालांकि अमेरिका सदा तत्पर रहा है, परंतु ठीक इसी समय लैटिन अमेरिकी, मध्य-पूर्व और अफ्रीका के कुछ देशों में तानाशाही व्यवस्था का समर्थन भी करता दिखाई देता है। इसके पीछे कारण है, अपने सामरिक एवं आर्थिक हितों का ध्यान रखना और इस कार्य सिद्धि हेतु अमेरिका ने कई लड़ाइयां भी लड़ी हैं।
शीतयुद्ध काल में, दुनिया स्पष्टत: सोवियत और पश्चिमी खेमों में बंटी हुई थी-अर्थात् तानाशाही और जनतांत्रिक व्यवस्था वाले मुल्कों के बीच। बर्लिन की दीवार ढहने के बाद हालांकि बहुत से देशों ने सोवियत खेमे से किनारा कर लिया था, किंतु अधिकांश में बदलाव केवल यही हुआ कि वामपंथी व्यवस्था की जगह तानाशाही वाला निजाम कायम हो गया। बेशक कई मुल्कों ने नाटो संगठन की सदस्यता ले ली, किंतु अनेकानेक फिर भी रूस के प्रभाव तले बने हुए हैं। जहां कहीं चुनाव हुए भी, वहां तानाशाहों ने विपक्ष को कुचल डाला। संक्षेप में कहें तो वामपंथी व्यवस्था ढहते ही अधिनायकों ने सत्ता संभाल ली और अमेरिका, रूस और चीन भी उनके साथ बरतने लगे। ऐसे देशों में गणतंत्र कहीं नहीं है, केवल सत्तारूढ़ दल का मुखौटा बनी चंद संस्थाएं बोलने की आजादी, सीमित धार्मिक स्वतंत्रता, मुक्त मीडिया होने इत्यादि का नाटक करती दिखाई देती हैं।
यहां तक कि वियतनाम, फिलीपींस, कम्बोडिया, म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान आदि में ‘लोकतांत्रिक ढंग से चुने तानाशाहÓ राज कर रहे हैं। चुनावों में मतदाता को डराया धमकाया जाता है, धांधलियां होती हैं और विभिन्न किस्म की दबंगई बरती जाती है। यूके और पश्चिमी देशों में भले ही दक्षिणपंथी लहर जोर पकड़ रही है, जो कि लोकतंत्र के लिए खतरा है, तथापि वहां अभी भी गणतंत्र कायम है।
उपरोक्त वर्णन वैश्विक परिदृश्य पर लोकतंत्र के मौजूदा रूप का एक लघु अवलोकन भर है। सवाल यह पैदा होता है : इसके पीछे कारण क्या है : हम ऐसे नेता को चुनते ही क्यों हैं जो लोकतांत्रिक नियमों से परे हटने लगते हैं? कोई व्यक्ति अपने हाथों में ज्यादा से ज्यादा ताकत केंद्रित करने पर क्यों उतारू हो जाता है, ढंग चाहे कानूनी हो या गैरकानूनी अथवा छलकपट वाला। सर्वप्रथम परिवार वह जगह होती है जहां से किसी का अधिनायकवादी रवैया पहचान में आता है। आगे यह कार्यस्थल में परिलक्षित होता है और अंतत: राजकाज में एकदम जाहिर हो जाता है। एक प्रबुद्ध जनतंत्र बनने की राह में रुकावटों में एक सबसे बड़ी है, सही शिक्षा व्यवस्था का अभाव। हम आज भी अपने बच्चों को सिखाने और मनन करने योग्य बनाने में आधुनिक तौर-तरीकों का इस्तेमाल नहीं कर रहे।
इस बारे में पश्चिमी देश ज्यादा खुलापन लिए हैं, खासकर शिक्षा प्रणाली में, जो छात्रों में मनन और अनुसंधान करने को बढ़ावा देती है। दूसरी ओर हमारे यहां कक्षा में सवाल पूछने को हतोत्साहित किया जाता है क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था रट्टा मारने के लिहाज से बनाई गई है। इसके चलते हमारे विश्वविद्यालयों से शायद ही कोई ढंग की खोज निकलती है जबकि अमेरिका, यूके और यूरोपियन देशों के समकक्ष विद्यार्थी हैरान कर देने वाली खोजें करते हैं। यहां तक कि कुछेक छात्र पढ़ाई के दौरान नोबेल पुरस्कार तक जीत चुके हैं, कुछेक नामी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में महत्वपूर्ण पदों पर हैं, तो बहुत से परिष्कृत खोज करने में जुटे हैं। यदि विश्व में हमें एक ताकतवर मुल्क और लोकतांत्रिक मूल्यों वाला मुल्क बनना है तो अपनी शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल सुधार लाने की जरूरत है, जहां मनन करने और अपना जुदा नजरिया पेश करने को उत्साहित किया जाए, विश्वविद्यालयों में अनुसंधान के लिए खासा धन रखा जाए।
जिन लोकतांत्रिक समाजों में मुक्त विचार और असहमति प्रकट करने को बढ़ावा नहीं दिया जाता वहां नेतृत्व की प्रवृत्ति एकतरफा निर्णय लेने वाली और निरंकुश बन जाती है। राजकाज में पारदर्शिता कम होती जाती है और जनता की सीधी पहुंच नेता तक नहीं रहती। इससे नेतृत्व और नागरिक और ज्यादा दूर हो जाते हैं और शासन चलाने वाला सुरक्षा बलों, पुलिस और प्रशासनिक अमले पर ज्यादा निर्भर रहना शुरू कर देता है। दरबारी बने सरकारी अफसर वफादारी निभाने में लग जाते हैं क्योंकि सत्ता की ताकत और फायदों से मिलने वाला अंश उनसे यह करवाता है। कई बार लोगों को डराने-धमकाने या सभाओं-जलसों में भीड़ जुटाने को राजनीतिक गुंडों की निजी फौज पैदा की जाती है। यह सब मिलकर नेताओं की पकड़ मजबूत बनाने के लिए ठोस आधार प्रदान करते हैं और वह अपनी जगह सुरक्षित कर लेने के बाद और ज्यादा ढीठ और दबंग बनने लगता है। जैसा कि अमेरिका में ट्रंप वाले मामले में हुआ है, जब संविधान और लोकतंत्र को धता बताने की कोशिश की गई है। ऐसी हरकतों को केवल लोगों की सम्मिलित इच्छाशक्ति से ही रोका या थामा जा सकता है। वैसे भी कहावत है : ‘आजादी की कीमत लगातार चौकसी रखकर चुकानी पड़ती है।’
लेख में अभी तक मैंने अपने मुल्क का जिक्र नहीं किया है क्योंकि यहां भी वही तमाम विद्रूपताएं हैं, जिससे अन्य लोकतंत्र पीडि़त हैं। इसके अलावा, हजारों सालों से जिस व्याधि को हम विरासत में ढो रहे हैं, वह है हमारी वर्ण व्यवस्था। इस व्यवस्था ने करोड़ों लोगों को प्रभावित करने वाली जो अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था हमें दी है, उसको सुधारने के लिए एक के बाद एक आई सरकारों ने महज दिखावटी प्रयास किए हैं, बल्कि इस कुप्रथा को जारी रखे हुए हैं। जाति-वर्ण भेद वे अवयव हैं, जिनका प्रयोग कर ब्रिटिश हाकिमों ने ‘फूट डालो और राज करोÓ नीति में महारत प्राप्त की थी और हम शिक्षा, रोजगार और चुनावों में इस पर अमल कर रहे हैं। ब्रिटिश हुक्मरानों का मकसद हिंदू-मुस्लिम रार को हवा देकर अपने राजपाट की अवधि बढ़ाना था, हमारे वाले तो इसका प्रयोग चुनावी फायदा उठाने और सदियों पुरानी रंजिशें निकालने का आधार बनाने में कर रहे हैं। ऐसा करके न केवल हमने जनतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर किया है बल्कि खुद लोकतंत्र को भी।
इससे आगे क्या? हमने देखा है कि न तो घर, न ही समाज या सरकार में लोकतांत्रिक मूल्यों को उत्साहित नहीं किया जाता। तो क्या तानाशाही बेहतर है। यानी एक व्यक्ति और एक दल विशेष की? इसके लिए मेरे पास विद्वान बुजुर्ग की कही बात दोहराने के अलावा कुछ नहीं है और उनका नाम है सर विंस्टन चर्चिल-वह एक मंझे हुए राजनीतिज्ञ, युद्धकाल में दृढ़ निश्चयी नेता और बड़े इतिहासकार थे। उनका कहना था : ‘पाप और मुसीबत भरी इस दुनिया में, आज तक विभिन्न प्रणाली वाली राज-व्यवस्थाएं बनाने की कोशिशें हुई हैं और आगे भी होंगी। किंतु कोई यह दिखावा नहीं कर सकता कि लोकतांत्रिक व्यवस्था सर्वोत्तम या बाकियों से बेहतर है। वास्तव में, ऐसा कहा जाता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था सबसे खराब शासन व्यवस्था है, सिवाय उन राज-व्यवस्थाओं के, जो समय-समय पर आजमाई जा चुकी हैं।Ó
मैं उस उक्ति से एकदम सहमत हूं : ‘इस व्यवस्था (लोकतंत्र) में आप और मैं मतदान का अधिकार रखते हैं, हमारे पास उठाने को आवाज़ है, अपने नज़रिए हैं। जबकि तानाशाही में, आपके पास इनमें से एक भी नहीं होता, तिस पर आजादी और शायद जान भी जाने की गुंजाइश रहती है।’

गुरबचन जगत

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